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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

अपने विवेकको जागरूक रखिये

मनुष्यमें अन्य जीवोंकी अपेक्षा जो श्रेष्ठतम गुण है, वह है बुद्धि। सर्वत्र मनुष्यकी बुद्धिके नाना चमत्कार ही दिखायी दे रहे है। कौएके पश्चात् शायद मनुष्य ही सबसे होशियार है। देखा जाता है कि बुद्धिकी रुझान चालाकी, बेईमानी, धूर्त्तता, धोखेबाजी आदिकी ओर है। इन्सान दूसरोंको धोखा देना चाहता है और अपने-आप स्वार्थमय विलासी जीवन व्यतीत करना चाहता है। इसीमें उसकी बुद्धिमानीका उपयोग हो रहा है। यह होशियारी मनुष्यका क्षय ही करनेवाली है। दगाबाजी, झूठ, फरेब, जेबकट, धोखा इत्यादि अनेक रूपोंमें मनुष्यकी बुद्धिका दुरुपयोग हो रहा है।

गायत्री-विद्यामें सद्बुद्धि करनेकी शिक्षा दी गयी है। 'ध्य' शब्दका अर्थ विवेक होता है। विवेक क्या है? न्याययुक्त निष्पक्ष लोक-कल्याणकारी भावनाओंसे प्रेरित होकर जो विचार किया जाता है, वह विवेक है। जब हृदयमें विवेक जाग्रत् हो जाता है, तब वह हमारी बुद्धिको ठीक मार्गपर आरूढ़ करता है। विवेक शरीर तथा मनका गुरु है। विवेकका सम्बन्ध विश्वमें व्याप्त चैतन्य शक्ति से है। विवेकके द्वारा हम ईश्वरसे अपना सम्बन्ध जोड़ते है। विवेक ईश्वरसे सम्बन्ध जोड़नेका एक माध्यम है। इससे हम उन तमाम शक्तियोंका उपयोग करते है, जो ईश्वरमें व्यास है।

गीता ईश्वरकी वाणीसे सम्बन्ध जोड़नेका एक माध्यम है। देवताओंकी विभिन्न मूर्तियों दैवी गुणोंके विभिन्न माध्यम है। ईश्वरके चित्रोंमें हम दैवी गुणोंको ग्रहण करते है।

विवेकके रूपमें हमारे हृदयमें ईश्वर बैठे हुए है। विवेक परमेश्वरकी वाणी है। विवेक सत्य है। उसे जाग्रत् करनेके लिये हमें निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। आजके बुद्धि-वैभव-भ्रमित युगमें विवेक ही हमें ठीक दिशामें चलते रख सकता है।

आप यह सोचकर भयभीत न हों कि आप पढ़े-लिखे नहीं है, पुस्तकें नहीं पढ़ी है, विद्वानों के सम्पर्क में नहीं रहे है; फिर विवेक आपके साथ है। आप ध्यानसे सुनें तो विवेक आपका मार्ग प्रकाशमान रखेगा। इसमें जो ईश्वर-तत्त्व है, वही विवेक है। वह मस्तिष्क में सर्वत्र व्याप्त है। यही हमारी उन्नति की दिशा को उचित-दिशा में रखनेवाला है।

बुद्धि, विवेक और तर्क-ये तीन ऋषि है, जो हमारे हृदयमें विराजमान है। ये हमें सत्यकी खोजमें सहायता प्रदान करनेवाले है। जितना-जितना हम आगे चलेंगे, उतना ही हमारा मार्ग प्रकाशित होता चलेगा। यह हमारे व्यक्तित्व का क्रमिक विकास है। हमारा जीवात्मा जो कहता है, वह वास्तवमें मुक्तिदाता है।

प्रत्येक देश-काल-पात्रके अनुकूल समाजकी भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएँ रहती है। कहीं हिंसाका पक्ष लिया गया है तो कहीं उसके विपक्षका; कहीं विधवा-विवाहका खण्डन है तो कहीं मण्डन। एक काल और व्यक्ति के लिये जो बात ठीक हो सकती है, वह दूसरे काल तथा व्यक्तिके लिये सम्भव नहीं है। जो बातें प्राचीन कालमें उचित थीं, सम्भव है वे अब उचित न रहें। इस नीर-क्षीरको पृथक् करनेमें विवेकका मुख्य हाथ है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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